आँख की नज़र मुड़ने या रिफ्रैक्टिव एरर (चश्मे की पावर) को ठीक करने के लिए की जाने वाली सर्जरी, रिफ्रैक्टिव सर्जरी होती है। इस सर्जरी को चश्में व कॉन्टैक्ट लेंस लगाने या इससे मुक्ति पाने के लिए की जाती है। 18 से 21 वर्ष के बाद नज़र मुड़ या परिवर्तित हो जाती है तो ऐसे व्यक्ति के लिए सर्जरी की जाती है। इसके मरीजों का पूरा इतिहास जानने के लिए इनकी आँखों का बारीके से परीक्षण किया जाता है जिसमें आँख का कॉर्निया व अन्य आयामों के आकार, मोटाई व टेढापन के इवैल्यूएशन के लिए कॉर्नियअल टोपोग्राफी (corneal topography) (पेंटाकैम (Pentacam), ओर्बस्कैन (Orbscan), एंटीरियर सिगमेंट ऑप्टिकल कोहिरन्स टोमोग्राफी (Optical Coherence Tomography) (ASOCT) जैसी विशेष जाँचें की जाती है। इन सभी जानकारी को प्राप्त करने के बाद, आइ सर्जन (ऑप्थैलमॉलॉजिस्ट) द्वारा सर्जरी के लिए उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक का चयन किया जा सकता है।
मौजूद रिफ्रैक्टिव तरीकों को कॉर्निया प्रक्रिया व लेंस आधारित सर्जरी में क्लासिफाइ किया जा सकता है।
इस प्रक्रिया में कॉर्निया की सबसे ऊपरी परत, एपिथेलियम को निकाल लिया जाता है, जिसके बाद नेत्र रिफ्रैक्टिव पावर को ठीक करने के लिए एक्साइमर लेजर (तरंग दैर्ध्य 193 nm) डिलीवरी की जाती है जो कॉर्निया की लेयर को रिशेप करता है। कुछ दिनों के लिए आँख को ठीक होने में सहायक कॉन्टैक्ट लेंस रखा जाता है, एपिथेलियम बहुत पतली (50 माइक्रोन) होती है और सामान्य रूप से 3 दिन में पुनः विकसित हो जाती है।
यह काफी प्रचलित प्रक्रिया है जिसमें कॉर्निया की सुपरफिशल लेयर में फ्लैप (100 - 120 माइक्रो) का निर्माण किया जाता है। इस फ्लैप का निर्माण दो तरीकों से किया जा सकता है।
यह एक छोटा विशेष ब्लेड है जो फ्लैप को सटीक गहराई पर विच्छेदित करता है, इसलिए माइक्रोकेर्टोम ने सहायता की लेसिक इसे ब्लेड लेसिक के नाम से भी जाना जाता है
यह एक विशिष्ट लेज़र है जो आवश्यक गहराई पर सटीक रूप से फ्लैप का निर्माण करती है, यह उपर्युक्त एक्साइमर लेज़र से काफी अलग है जिसकी डिलीवरी के लिए अलग मशीन की आवश्यकता होती है। फेम्टोसेकंड लेज़र सहायक लेसिक को फेम्टो-लेसिक (FEMTO-LASIK) भी कहा जाता है।
उपर्युक्त दोनों में से किसी भी तरीके द्वारा फ्लैप निर्माण के बाद उठाया जाता है और एक्साइमर लेज़र से अवशिष्ट बेड का उपचार किया जाता है (इसी लेज़र का प्रयोग PRK में किया जाता है)। इस प्रक्रिया के बाद फ्लैप को कॉर्निया बेड पर वापस रख दिया जाता है और मरीज को दवा देकर छुट्टी दे दी जाती है।
यह सब से अधि एडवांन्स्ड रिफ्रैक्टिव सर्जरी है जिसमें केवल फेम्टोसेकंड लेज़र (फेम्टो-लेसिक (FEMTO-LASIK) में वर्णित लेज़र) की ज़रूरत पड़ती है। कॉर्निया परतों में (पूर्वनिर्धारित आकार व मोटाई की) लेंटिक्यूल निर्माण करने के लिएफेम्टोसेकंड लेज़र से आँख की नज़र को ठीक किया जाता है। इस लेंटिक्यूल को दो तरीकों से निकाला जा सकता है।
इस लेंटिक्यूल को निकालने पर कॉर्निया का आकार बदल जाता है और आँख की नज़र को ठीक किया जाता है। इस सर्जरी में एक्साइमर लेज़र, माइक्रोकेराटोम ब्लेड या फ्लैप की आवश्यकता नहीं है इसलिए इसे ब्लेड-रहित, फ्लैप-रहित रिफ्रैक्टिव सर्जरी के नाम से भी जाना जाता है।
लेंस आधारित सर्जरी में चश्मा के पावर को ठीक करने के लिए ‘आँख-इंट्राऑकुलर” प्रक्रिया की जाती है। जिसे निम्न प्रकार से क्लासिफाइ किया जा सकता है-
इस सर्जरी के अंतर्गत नेत्र में प्राकृतिक क्रिस्टलाइन लेंस के सामने कृत्रिम इम्प्लांटेबल कॉन्टैक्ट लेंस रखा जाता है। ICL का निर्माण कोलामर (कोलेजन (collagen) + पॉलीमर (polymer) संयोजन) नामक बायोकंपैटिबल सामग्री से किया जाता है और यह सामान्य रूप से प्रयुक्त डिस्पोजेबल कॉन्टैक्ट लेंस से काफी अलग है।
लेंस एक्सचेंज में नेत्र के प्राकृतिक क्रिस्टलाइन लेंस को निकालकर उसकी जगह सही पावर के कृत्रिम इंट्राओकुलर लेंस (IOL - artificial intraocular lens) रखा जाता है। इस प्रक्रिया में अल्ट्रासोनिक एनर्जी (Phacoemulsification) का उपयोग करके नेत्र से प्राकृतिक लेंस को निकाला जाता है, जिसके बाद मोतियाबिंद सर्जरी की ज़रूरत नहीं पड़ती है। फेम्टोसेकंड लेजर का प्रयोग लेंस एक्सचेंज में सहायता के लिए किया जा सकता है और यह रोबोटिक (ROBOTIC) - लेंस एक्सचेंज (Refractive Lens Exchange) नाम से प्रचलित है।
सर्जरी के सभी मरीजों को लुब्रिकैंट्स व सुरक्षात्मक चश्में के साथ-साथ एंटीबायोटिक (antibiotic) - आई ड्रोप्स का स्टेरॉयड (steroid) का कंबिनेशन दिया जाता है। ऑपरेशन के बाद नियमित जाँच के साथ-साथ 1, 3, 7 व 14वें दिन में मरीजों की करीबी से फॉलो अप करना अनिवार्य है।
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